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न खुदा मिला न विसाल ए सनम! राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में कांग्रेस का न जाने का फैसला हो सकता है घातक | Congress Decision not attend Ram Pran Pratishtha ayodhya could dangerous lok sabha elections 2024

न खुदा मिला न विसाल-ए-सनम! राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में कांग्रेस का न जाने का फैसला हो सकता है घातक

कांग्रेस पार्टी की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी

अयोध्या में भगवान राम के जन्मस्थान पर बन रहे मंदिर की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का श्रेय आज भले ही RSS, VHP और BJP ले रही हो, किंतु मार्ग तो कांग्रेस ने ही प्रशस्त किया था. ऐसे में कांग्रेस ने श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट का न्योता ठुकरा कर अपने ही पांवों पर ही कुल्हाड़ी मारी है. प्राण प्रतिष्ठा समारोह में न जाने का फैसला कर भले ही वह अपने को सेकुलर जताने का दावा करे, लेकिन वोटर्स को पता है कि वह कितनी सेकुलर है. रामजन्म भूमि पर ताला तो 1949 से पड़ा था मगर एक फरवरी 1986 को ताला किसके आदेश पर खुला यह कोई दबी-ढकी बात नहीं है. उस समय उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वीर बहादुर सिंह सरकार थी और केंद्र में प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे. प्राण प्रतिष्ठा समारोह एक ऐसा अवसर था, जब कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी (BJP) के वर्चस्व को तोड़ सकती है.

संसदीय लोकतंत्र में राजनीति की काट राजनीतिक चातुर्य होता है. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर के चलते कांग्रेस को ऐसा प्रचंड बहुमत मिला कि संपूर्ण विपक्ष ध्वस्त हो गया था. लेकिन अपार बहुमत ने नौसिखुआ प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1984 से 1989 के बीच कुछ ऐसे फैसले किए कि वे आकंठ फंसते ही चले गए. मुसलमानों को खुश करने के लिए उन्होंने शाह बानो मामले में आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटवा दिया तो हिंदुओं को तुष्ट करने के वास्ते अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवा दिया. राजीव सरकार की इस पहल से पूर्व राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद 1949 से शांत पड़ा हुआ था. लेकिन ताला खुलते ही चाबी राजीव गांधी के हाथ से निकल गई. VHP और RSS इसे ले उड़ी. इसलिए आज सारा श्रेय RSS, VHP और BJP को ही मिल रहा है.

बीजेपी को झटका दे सकती थी कांग्रेस

बीजेपी के इस गुब्बारे की हवा कांग्रेस निकाल सकती थी. मगर आजकल जिन अतिवादियों की तूती वहां बोल रही है, वे उसे माध्यम मार्ग पर चलने नहीं देंगे. पीवी नरसिम्हा राव वे आखिरी नेता थे, जो कांग्रेस को मध्य मार्ग पर चलने देने की कोशिश में लगे रहे. यही कारण रहा, कि उन्होंने अल्पमत में रहते हुए भी अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया. मगर 10, जनपथ के भक्तों ने उनके हर कदम पर अड़चनें डालीं. उनकी सरकार के जाते ही उनकी उपेक्षा शुरू कर दी. बाद में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब उसी उदारवाद और खुली अर्थव्यवस्था के रास्ते पर चले, जिसकी नींव नरसिम्हा राव ने रखी थी. परंतु राव ने कभी भी अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति नहीं की थी, इसलिए कांग्रेस का हिंदू वोट बना रहा था.

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मजे की बात कि कांग्रेस का हिंदू वोट अभी समाप्त नहीं हुआ, बस बिखर जरूर गया है. उसको एकजुट करने के लिए प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शिरकत करना एक सही मौका था, लेकिन कांग्रेस ने अपनी स्पष्ट इनकार से उसे खो दिया. एक तरफ तो कांग्रेस राम को भारत के लाखों लोगों का आराध्य स्वीकार करती है तब उसे उन आराध्य की आराधना के अवसर पर जाना चाहिए था. कांग्रेस ने अपने एक बयान में कहा है, कि सुप्रीम कोर्ट के 2019 के फैसले का वह पालन करती है. किंतु बीजेपी अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति हेतु उस अर्ध निर्मित मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा कर रही है, जो अनुचित है. कांग्रेस की बात अपनी जगह सही है. लेकिन प्राण प्रतिष्ठा मूर्ति में होती है, मंदिर की नहीं. यह भी सही है, कि बीजेपी ने इसे अपनी हित पूर्ति का साधन बना रखा है.

पार्टी के अंदर कई नेता फैसले से खफा

लेकिन जब राजनीति हो ही रही है तो आप भी राजनीति का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दीजिए. अन्यथा संन्यासी चोला धारण कर लीजिए और कहिए कि हमारा अब दीन-दुनिया से कोई मतलब नहीं. इसीलिए कांग्रेस के अंदर भी विरोध शुरू हो गया है. पार्टी के ही नेता प्रमोद कृष्णम ने इसे कांग्रेस का आत्मघाती निर्णय बताया है. कई अन्य नेता भी कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और सोनिया गांधी तथा अधीर रंजन चौधरी के इस निर्णय से खुश नहीं हैं. भले प्राण प्रतिष्ठा बीजेपी की अगुवाई में हो लेकिन मुख्य विरोधी दल के इसी तरह के रवैये से फायदा बीजेपी को खूब हो रहा है. कई बार तो लगता है, कि बीजेपी को जिताने के जितने प्रयास पार्टी करती है, उससे कहीं अधिक प्रयास कांग्रेस कर रही है.

कांग्रेस समझ नहीं रही, कि उसके बयान सीधे-सीधे 80 पर्सेंट हिंदुओं को बीजेपी के पाले में जाने को प्रेरित कर रहे हैं. बीजेपी को भी मालूम है, कि क्षेत्रीय दल तब तक उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते जब तक कांग्रेस मजबूत न हो. मगर कांग्रेस या तो भविष्य का आकलन नहीं कर पा रही अथवा उसे लगता है कि सिर्फ अल्पसंख्यकों को संतुष्ट कर वह सत्ता में आ जाएगी. यह सच है, कि 22 जनवरी को होने वाले प्राण प्रतिष्ठा समारोह से कई हिंदू धर्माचार्य भी प्रसन्न नहीं हैं. कई धर्माचार्यों ने इसके शास्त्रोक्त न होने पर आपत्ति दर्ज की है. हो सकता है कि वे भी न पधारें. खासकर शंकराचार्य, जिन्हें समस्त हिंदू धर्म का मार्गदर्शक कहा जाता है, वे भी विरोध कर रहे. लेकिन उनका विरोध शास्त्र और पूजा पद्धति को ले कर है. दूसरे वे कोई राजनेता नहीं हैं, जो उन्हें वोटों की चिंता हो.

महासचिव चंपत राय की बचकानी बातें

दूसरी ओर, श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय इतनी बचकानी बातें करने लगते हैं कि कोई भी उनसे रुष्ट हो जाएगा. उन्होंने प्राण प्रतिष्ठा समारोह की पूजा अर्चना को रामानंदी संप्रदाय के अनुसार बता दिया. ऊपर से यह भी कहा कि वैष्णव, शैव, शाक्त और साधु-संन्यासी और आचार्य दूर रहें. कोई भी उनकी बात से नाराज हो जाएगा. पूरे 500 वर्षों बाद यह मौका आया है कि भगवान राम अपने जन्म स्थान पर पधारेंगे. यह समारोह सभी का है. रामानंदी संप्रदाय तो महज 800 साल पुराना है. राम की पूजा तो हजारो साल से होती आ रही है. महर्षि वाल्मीकि भी राम की पूजा करते थे. राम के नाम की शपथ ले कर ईस्वी पूर्व के शासक शुंग और ईस्वी बाद के गुप्त राजा गद्दी पर बैठते आए हैं, तो ये क्या रामानंदी संप्रदाय के थे?

फिर जो रामानंद स्वामी बिना किसी पंथ या जाति अथवा संप्रदाय यहां तक कि वे मुस्लिम शिष्य आलम को भी दीक्षा देते हैं, उनके नाम का सहारा लेकर चंपत राय हिंदू धर्म के साधुओं को दुत्कार रहे हैं. संभव है, कि उन्होंने कांग्रेस को जो निमंत्रण भेजा हो, उसमें भी कोई बड़बोलापन दिखाया हो. मगर कांग्रेस को राजनीति के दांव-पेच समझते हुए अपना बयान जारी करना था. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा, कि वे PDA के नेता हैं. अर्थात पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक, इसलिए वे समारोह में नहीं जाएंगे. उनकी बात समझ में आती है, क्योंकि नवंबर 1990 में जब अयोध्या में कार सेवकों पर गोलियां चली थीं, तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री उनके पिता मुलायम सिंह यादव थे. हालांकि मुलायम सिंह यादव ने कहा था, वे भगवान राम का सम्मान करते हैं, मगर उनका नाम लेकर प्रदेश की शांति नहीं भंग करने दी जाएगी. इसलिए संभव है, कि अखिलेश यादव को लगा हो कि कहीं प्राण प्रतिष्ठा में आई भीड़ उनके साथ अभद्रता न कर दे.

ध्यान रखना चाहिए, कि अखिलेश यादव की सपा और कांग्रेस में काफी बड़ा अंतर है. कांग्रेस तो स्वयं मंदिर निर्माण का प्रशस्त करने में सहायक रही है, फिर खरगे, सोनिया गांधी और अधीर रंजन चौधरी का अपने पूर्ववर्ती नेताओं के विपरीत आचरण क्यों? ऐसी स्थिति देख कर हर कोई कहेगा, कि कांग्रेस क्यों अपने वोट से दूर हो रही है? क्या इसलिए कि आगामी चुनाव में भी मोदी अजेय रहेंगे?

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